अगस्त 2016


कब, क्यों और कैसे डूबी द्वारका?



Kab kyoon aur kaise dubi Dwarka?: श्री कृष्ण की नगरी द्वारिका महाभारत युद्ध के 36 वर्ष पश्चात समुद्र में डूब जाती है। द्वारिका के समुद्र में डूबने से पूर्व श्री कृष्ण सहित सारे यदुवंशी भी मारे जाते है।  समस्त यदुवंशियों के मारे जाने और द्वारिका के समुद्र में विलीन होने के पीछे मुख्य रूप से दो घटनाएं जिम्मेदार है।  एक माता गांधारी द्वारा श्री कृष्ण को दिया गया श्राप और दूसरा ऋषियों द्वारा श्री कृष्ण पुत्र सांब को दिया गया श्राप।  आइए इस घटना पर विस्तार से जानते है।


प्राचीन द्वारका नगरी (डेमो पिक्स)

गांधारी ने दिया था यदुवंश के नाश का श्राप –

महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद जब युधिष्ठर का राजतिलक हो रहा था तब कौरवों की माता गांधारी ने महाभारत युद्ध के लिए श्रीकृष्ण को दोषी ठहराते हुए श्राप दिया की जिस प्रकार कौरवों के वंश का नाश हुआ है ठीक उसी प्रकार यदुवंश का भी नाश होगा।

ऋषियों ने दिया था सांब को श्राप –

महाभारत युद्ध के बाद जब छत्तीसवां वर्ष आरंभ हुआ तो तरह-तरह के अपशकुन होने लगे। एक दिन महर्षि विश्वामित्र, कण्व, देवर्षि नारद आदि द्वारका गए। वहां यादव कुल के कुछ नवयुवकों ने उनके साथ परिहास (मजाक) करने का सोचा। वे श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री वेष में ऋषियों के पास ले गए और कहा कि ये स्त्री गर्भवती है। इसके गर्भ से क्या उत्पन्न होगा?

ऋषियों ने जब देखा कि ये युवक हमारा अपमान कर रहे हैं तो क्रोधित होकर उन्होंने श्राप दिया कि- श्रीकृष्ण का यह पुत्र वृष्णि और अंधकवंशी पुरुषों का नाश करने के लिए एक लोहे का मूसल उत्पन्न करेगा, जिसके द्वारा तुम जैसे क्रूर और क्रोधी लोग अपने समस्त कुल का संहार करोगे। उस मूसल के प्रभाव से केवल श्रीकृष्ण व बलराम ही बच पाएंगे। श्रीकृष्ण को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कहा कि ये बात अवश्य सत्य होगी।


समुद्र में डूबे हुए द्वारका नगरी के अवशेष

मुनियों के श्राप के प्रभाव से दूसरे दिन ही सांब ने मूसल उत्पन्न किया। जब यह बात राजा उग्रसेन को पता चली तो उन्होंने उस मूसल को चुरा कर समुद्र में डलवा दिया। इसके बाद राजा उग्रसेन व श्रीकृष्ण ने नगर में घोषणा करवा दी कि आज से कोई भी वृष्णि व अंधकवंशी अपने घर में मदिरा तैयार नहीं करेगा। जो भी व्यक्ति छिपकर मदिरा तैयार करेगा, उसे मृत्युदंड दिया जाएगा। घोषणा सुनकर द्वारकावासियों ने मदिरा नहीं बनाने का निश्चय किया।द्वारका में होने लगे थे भयंकर अपशकुन

इसके बाद द्वारका में भयंकर अपशकुन होने लगे। प्रतिदिन आंधी चलने लगी। चूहे इतने बढ़ गए कि मार्गों पर मनुष्यों से ज्यादा दिखाई देने लगे। वे रात में सोए हुए मनुष्यों के बाल और नाखून कुतरकर खा जाया करते थे। सारस उल्लुओं की और बकरे गीदड़ों की आवाज निकालने लगे। गायों के पेट से गधे, कुत्तियों से बिलाव और नेवलियों के गर्भ से चूहे पैदा होने लगे। उस समय यदुवंशियों को पाप करते शर्म नहीं आती थी।

अंधकवंशियों के हाथों मारे गए थे प्रद्युम्न –

जब श्रीकृष्ण ने नगर में होते इन अपशकुनों को देखा तो उन्होंने सोचा कि कौरवों की माता गांधारी का श्राप सत्य होने का समय आ गया है। इन अपशकुनों को देखकर तथा पक्ष के तेरहवें दिन अमावस्या का संयोग जानकर श्रीकृष्ण काल की अवस्था पर विचार करने लगे। उन्होंने देखा कि इस समय वैसा ही योग बन रहा है जैसा महाभारत के युद्ध के समय बना था। गांधारी के श्राप को सत्य करने के उद्देश्य से श्रीकृष्ण ने यदुवंशियों को तीर्थयात्रा करने की आज्ञा दी। श्रीकृष्ण की आज्ञा से सभी राजवंशी समुद्र के तट पर प्रभास तीर्थ आकर निवास करने लगे।

प्रभास तीर्थ में रहते हुए एक दिन जब अंधक व वृष्णि वंशी आपस में बात कर रहे थे। तभी सात्यकि ने आवेश में आकर कृतवर्मा का उपहास और अनादर कर दिया। कृतवर्मा ने भी कुछ ऐसे शब्द कहे कि सात्यकि को क्रोध आ गया और उसने कृतवर्मा का वध कर दिया। यह देख अंधकवंशियों ने सात्यकि को घेर लिया और हमला कर दिया। सात्यकि को अकेला देख श्रीकृष्ण के पुत्र प्रद्युम्न उसे बचाने दौड़े। सात्यकि और प्रद्युम्न अकेले ही अंधकवंशियों से भिड़ गए। परंतु संख्या में अधिक होने के कारण वे अंधकवंशियों को पराजित नहीं कर पाए और अंत में उनके हाथों मारे गए।

यदुवंशियों के नाश के बाद अर्जुन को बुलवाया था श्रीकृष्ण ने –

अपने पुत्र और सात्यकि की मृत्यु से क्रोधित होकर श्रीकृष्ण ने एक मुट्ठी एरका घास उखाड़ ली। हाथ में आते ही वह घास वज्र के समान भयंकर लोहे का मूसल बन गई। उस मूसल से श्रीकृष्ण सभी का वध करने लगे। जो कोई भी वह घास उखाड़ता वह भयंकर मूसल में बदल जाती (ऐसा ऋषियों के श्राप के कारण हुआ था)। उन मूसलों के एक ही प्रहार से प्राण निकल जाते थे। उस समय काल के प्रभाव से अंधक, भोज, शिनि और वृष्णि वंश के वीर मूसलों से एक-दूसरे का वध करने लगे। यदुवंशी भी आपस में लड़ते हुए मरने लगे।

श्रीकृष्ण के देखते ही देखते सांब, चारुदेष्ण, अनिरुद्ध और गद की मृत्यु हो गई। फिर तो श्रीकृष्ण और भी क्रोधित हो गए और उन्होंने शेष बचे सभी वीरों का संहार कर डाला। अंत में केवल दारुक (श्रीकृष्ण के सारथी) ही शेष बचे थे। श्रीकृष्ण ने दारुक से कहा कि तुम तुरंत हस्तिनापुर जाओ और अर्जुन को पूरी घटना बता कर द्वारका ले आओ। दारुक ने ऐसा ही किया। इसके बाद श्रीकृष्ण बलराम को उसी स्थान पर रहने का कहकर द्वारका लौट आए।

बलरामजी के स्वधाम गमन के बाद ये किया श्रीकृष्ण ने –

द्वारका आकर श्रीकृष्ण ने पूरी घटना अपने पिता वसुदेवजी को बता दी। यदुवंशियों के संहार की बात जान कर उन्हें भी बहुत दुख हुआ। श्रीकृष्ण ने वसुदेवजी से कहा कि आप अर्जुन के आने तक स्त्रियों की रक्षा करें। इस समय बलरामजी वन में मेरी प्रतीक्षा कर रहे हैं, मैं उनसे मिलने जा रहा हूं। जब श्रीकृष्ण ने नगर में स्त्रियों का विलाप सुना तो उन्हें सांत्वना देते हुए कहा कि शीघ्र ही अर्जुन द्वारका आने वाले हैं। वे ही तुम्हारी रक्षा करेंगे। ये कहकर श्रीकृष्ण बलराम से मिलने चल पड़े।

वन में जाकर श्रीकृष्ण ने देखा कि बलरामजी समाधि में लीन हैं। देखते ही देखते उनके मुख से सफेद रंग का बहुत बड़ा सांप निकला और समुद्र की ओर चला गया। उस सांप के हजारों मस्तक थे। समुद्र ने स्वयं प्रकट होकर भगवान शेषनाग का स्वागत किया। बलरामजी द्वारा देह त्यागने के बाद श्रीकृष्ण उस सूने वन में विचार करते हुए घूमने लगे। घूमते-घूमते वे एक स्थान पर बैठ गए और गांधारी द्वारा दिए गए श्राप के बारे में विचार करने लगे। देह त्यागने की इच्छा से श्रीकृष्ण ने अपनी इंद्रियों का संयमित किया और महायोग (समाधि) की अवस्था में पृथ्वी पर लेट गए।

ऐसे त्यागी श्रीकृष्ण ने देह –


जिस समय भगवान श्रीकृष्ण समाधि में लीन थे, उसी समय जरा नाम का एक शिकारी हिरणों का शिकार करने के उद्देश्य से वहां आ गया। उसने हिरण समझ कर दूर से ही श्रीकृष्ण पर बाण चला दिया। बाण चलाने के बाद जब वह अपना शिकार पकडऩे के लिए आगे बढ़ा तो योग में स्थित भगवान श्रीकृष्ण को देख कर उसे अपनी भूल पर पश्चाताप हुआ। तब श्रीकृष्ण को उसे आश्वासन दिया और अपने परमधाम चले गए। अंतरिक्ष में पहुंचने पर इंद्र, अश्विनीकुमार, रुद्र, आदित्य, वसु, मुनि आदि सभी ने भगवान का स्वागत किया।

इधर दारुक ने हस्तिनापुर जाकर यदुवंशियों के संहार की पूरी घटना पांडवों को बता दी। यह सुनकर पांडवों को बहुत शोक हुआ। अर्जुन तुरंत ही अपने मामा वसुदेव से मिलने के लिए द्वारका चल दिए। अर्जुन जब द्वारका पहुंचे तो वहां का दृश्य देखकर उन्हें बहुत शोक हुआ। श्रीकृष्ण की रानियां उन्हें देखकर रोने लगी। उन्हें रोता देखकर अर्जुन भी रोने लगे और श्रीकृष्ण को याद करने लगे। इसके बाद अर्जुन वसुदेवजी से मिले। अर्जुन को देखकर वसुदेवजी बिलख-बिलख रोने लगे। वसुदेवजी ने अर्जुन को श्रीकृष्ण का संदेश सुनाते हुए कहा कि द्वारका शीघ्र ही समुद्र में डूबने वाली है अत: तुम सभी नगरवासियों को अपने साथ ले जाओ।

अर्जुन अपने साथ ले गए श्रीकृष्ण के परिजनों को –

वसुदेवजी की बात सुनकर अर्जुन ने दारुक से सभी मंत्रियों को बुलाने के लिए कहा। मंत्रियों के आते ही अर्जुन ने कहा कि मैं सभी नगरवासियों को यहां से इंद्रप्रस्थ ले जाऊंगा, क्योंकि शीघ्र ही इस नगर को समुद्र डूबा देगा। अर्जुन ने मंत्रियों से कहा कि आज से सातवे दिन सभी लोग इंद्रप्रस्थ के लिए प्रस्थान करेंगे इसलिए आप शीघ्र ही इसके लिए तैयारियां शुरू कर दें। सभी मंत्री तुरंत अर्जुन की आज्ञा के पालन में जुट गए। अर्जुन ने वह रात श्रीकृष्ण के महल में ही बिताई।

अगली सुबह श्रीकृष्ण के पिता वसुदेवजी ने प्राण त्याग दिए। अर्जुन ने विधि-विधान से उनका अंतिम संस्कार किया। वसुदेवजी की पत्नी देवकी, भद्रा, रोहिणी व मदिरा भी चिता पर बैठकर सती हो गईं। इसके बाद अर्जुन ने प्रभास तीर्थ में मारे गए समस्त यदुवंशियों का भी अंतिम संस्कार किया। सातवे दिन अर्जुन श्रीकृष्ण के परिजनों तथा सभी नगरवासियों को साथ लेकर इंद्रप्रस्थ की ओर चल दिए। उन सभी के जाते ही द्वारका नगरी समुद्र में डूब गई। ये दृश्य देखकर सभी को बड़ा आश्चर्य हुआ।

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महाबली जामवंत का शुमार उन गिने चुने पौराणिक पात्रों में होता है जो त्रेता युग के रामायण काल में भी उपस्थित थे और द्वापर युग के महाभारत काल में भी। 


रामायण काल में जहाँ वो विष्णु अवतार श्री राम के प्रमुख सहायक बने थे वही महाभारत काल में उन्होंने विष्णु अवतार श्री कृष्ण से युद्ध लड़ा था। लेकिन आखिर उन्होंने ऐसा क्या क्यों ? इसका जवाब जानने के लिए पढ़ते है पुराणों में वर्णित एक रोचक कथा।


पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार सत्राजित ने भगवान सूर्य की उपासना की जिससे प्रसन्न होकर उन्होंने अपनी स्यमन्तक नाम की मणि उसे दे दी। एक दिन जब कृष्ण साथियों के साथ चौसर खेल रहे थे तो सत्राजित स्यमन्तक मणि मस्तक पर धारण किए उनसे भेंट करने पहुंचे। उस मणि को देखकर कृष्ण ने सत्राजित से कहा की तुम्हारे पास जो यह अलौकिक मणि है, इनका वास्तविक अधिकारी तो राजा होता है। इसलिए तुम इस मणि को हमारे राजा उग्रसेन को दे दो। यह बात सुन सत्राजित बिना कुछ बोले ही वहाँ से उठ कर चले गए। सत्राजित ने स्यमन्तक मणि को अपने घर के मन्दिर में स्थापित कर दिया। वह मणि रोजाना आठ भार सोना देती थी. जिस स्थान में वह मणि होती थी वहाँ के सारे कष्ट स्वयं ही दूर हो जाते थे।

एक दिन सत्राजित का भाई प्रसेनजित उस मणि को पहन कर घोड़े पर सवार हो आखेट के लिये गया। वन में प्रसेनजित पर एक सिंह ने हमला कर दिया जिसमें वह मारा गया। सिंह अपने साथ मणि भी ले कर चला गया। उस सिंह को ऋक्षराज जामवंत ने मारकर वह मणि प्राप्त कर ली और अपनी गुफा में चला गया। जामवंत ने उस मणि को अपने बालक को दे दिया जो उसे खिलौना समझ उससे खेलने लगा।

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जब प्रसेनजित लौट कर नहीं आया तो सत्राजित ने समझा कि उसके भाई को कृष्ण ने मारकर मणि छीन ली है। कृष्ण जी पर चोरी के सन्देह की बात पूरे द्वारिकापुरी में फैल गई। अपने उपर लगे कलंक को धोने के लिए वे नगर के प्रमुख यादवों को साथ ले कर रथ पर सवार हो स्यमन्तक मणि की खोज में निकले। वन में उन्होंने घोड़ा सहित प्रसेनजित को मरा हुआ देखा पर मणि का कहीं पता नहीं चला। वहाँ निकट ही सिंह के पंजों के चिन्ह थे। सिंह के पदचिन्हों के सहारे आगे बढ़ने पर उन्हें मरे हुए सिंह का शरीर मिला।

वहाँ पर रीछ के पैरों के पद-चिन्ह भी मिले जो कि एक गुफा तक गये थे। जब वे उस भयंकर गुफा के निकट पहुँचे तब श्री कृष्ण ने यादवों से कहा कि तुम लोग यहीं रुको। मैं इस गुफा में प्रवेश कर मणि ले जाने वाले का पता लगाता हूँ। इतना कहकर वे सभी यादवों को गुफा के मुख पर छोड़ उस गुफा के भीतर चले गये। वहाँ जाकर उन्होंने देखा कि वह मणि एक रीछ के बालक के पास है जो उसे हाथ में लिए खेल रहा था। श्री कृष्ण ने उस मणि को उठा लिया। यह देख कर जामवंत अत्यन्त क्रोधित होकर श्री कृष्ण को मारने के लिये झपटा। जामवंत और श्री कृष्ण में भयंकर युद्ध होने लगा। जब कृष्ण गुफा से वापस नहीं लौटे तो सारे यादव उन्हें मरा हुआ समझ कर बारह दिन के उपरांत वहाँ से द्वारिकापुरी वापस आ गये तथा समस्त वृतांत वासुदेव और देवकी से कहा। वासुदेव और देवकी व्याकुल होकर महामाया दुर्गा की उपासना करने लगे। उनकी उपासना से प्रसन्न होकर देवी दुर्गा ने प्रकट होकर उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारा पुत्र तुम्हें अवश्य मिलेगा.


श्री कृष्ण और जामवंत दोनों ही पराक्रमी थे। युद्ध करते हुये गुफा में अट्ठाईस दिन बीत गए। कृष्ण की मार से महाबली जामवंत की नस टूट गई। वह अति व्याकुल हो उठा और अपने स्वामी श्री रामचन्द्र जी का स्मरण करने लगा। जामवंत के द्वारा श्री राम के स्मरण करते ही भगवान श्री कृष्ण ने श्री रामचन्द्र के रूप में उसे दर्शन दिये। जामवंत उनके चरणों में गिर गया और बोला, “हे भगवान! अब मैंने जाना कि आपने यदुवंश में अवतार लिया है.” श्री कृष्ण ने कहा, “हे जामवंत! तुमने मेरे राम अवतार के समय रावण के वध हो जाने के पश्चात मुझसे युद्ध करने की इच्छा व्यक्त की थी और मैंने तुमसे कहा था कि मैं तुम्हारी इच्छा अपने अगले अवतार में अवश्य पूरी करूँगा. अपना वचन सत्य सिद्ध करने के लिये ही मैंने तुमसे यह युद्ध किया है.” जामवंत ने भगवान श्री कृष्ण की अनेक प्रकार से स्तुति की और अपनी कन्या जामवंती का विवाह उनसे कर दिया।

कृष्ण जामवंती को साथ लेकर द्वारिका पुरी पहुँचे। उनके वापस आने से द्वारिका पुरी में चहुँ ओर प्रसन्नता व्याप्त हो गई। श्री कृष्ण ने सत्राजित को बुलवाकर उसकी मणि उसे वापस कर दी। सत्राजित अपने द्वारा श्री कृष्ण पर लगाये गये झूठे कलंक के कारण अति लज्जित हुआ और पश्चाताप करने लगा। प्रायश्चित के रूप में उसने अपनी कन्या सत्यभामा का विवाह श्री कृष्ण के साथ कर दिया और वह मणि भी उन्हें दहेज में दे दी। किन्तु शरणागत वत्सल श्री कृष्ण ने उस मणि को स्वीकार न करके पुनः सत्राजित को वापस कर दिया।

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 महाभारत काल मेँ प्रयाग (इलाहाबाद) के तटवर्ती प्रदेश मेँ सुदूर तक फैला श्रृंगवेरपुर राज्य एकलव्य के पिता निषादराज हिरण्यधनु का था। गंगा के तट पर अवस्थित श्रृंगवेरपुर उसकी सुदृढ़ राजधानी थी। उस समय श्रृंगवेरपुर राज्य की शक्ति मगध, हस्तिनापुर, मथुरा, चेदि और चन्देरी आदि बड़े राज्योँ के समकक्ष थी। निषाद हिरण्यधनु और उनके सेनापति गिरिबीर की वीरता विख्यात थी।
निषादराज हिरण्यधनु और रानी सुलेखा के स्नेहांचल से जनता सुखी व सम्पन्न थी। राजा राज्य का संचालन आमात्य (मंत्रि) परिषद की सहायता से करता था। निषादराज हिरण्यधनु को रानी सुलेखा द्वारा एक पुत्र प्राप्त हुआ जिसका नाम “अभिद्युम्न” रखा गया। प्राय: लोग उसे “अभय” नाम से बुलाते थे। पाँच वर्ष की आयु मेँ एकलव्य की शिक्षा की व्यवस्था कुलीय गुरूकुल मेँ की गई।

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बालपन से ही अस्त्र शस्त्र विद्या मेँ बालक की लगन और एकनिष्ठता को देखते हुए गुरू ने बालक का नाम “एकलव्य” संबोधित किया। एकलव्य के युवा होने पर उसका विवाह हिरण्यधनु ने अपने एक निषाद मित्र की कन्या सुणीता से करा दिया। एकलव्य धनुर्विद्या की उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहता था। उस समय धनुर्विद्या मेँ गुरू द्रोण की ख्याति थी। पर वे केवल ब्राह्मण तथा क्षत्रिय वर्ग को ही शिक्षा देते थे और शूद्रोँ को शिक्षा देने के कट्टर विरोधी थे। महाराज हिरण्यधनु ने एकलव्य को काफी समझाया कि द्रोण तुम्हे शिक्षा नहीँ देँगे। पर एकलव्य ने पिता को मनाया कि उनकी शस्त्र विद्या से प्रभावित होकर आचार्य द्रोण स्वयं उसे अपना शिष्य बना लेँगे। पर एकलव्य का सोचना सही न था – द्रोण ने दुत्तकार कर उसे आश्रम से भगा दिया।

एकलव्य हार मानने वालोँ मेँ से न था और बिना शस्त्र शिक्षा प्राप्त तिए वह घर वापस लौटना नहीँ चाहता था। इसलिए एकलव्य ने वन मेँ आचार्य द्रोण की एक प्रतिमा बनायी और धनुर्विद्या का अभ्यास करने लगा। शीघ्र ही उसने धनुर्विद्या मेँ निपुणता प्राप्त कर ली। एक बार द्रोणाचार्य अपने शिष्योँ और एक कुत्ते के साथ उसी वन मेँ आए। उस समय एकलव्य धनुर्विद्या का अभ्यास कर रहे थे। कुत्ता एकलव्य को देख भौकने लगा। कुत्ते के भौंकने से एकलव्य की साधना में बाधा पड़ रही थी अतः उसने अपने बाणों से कुत्ते का मुँह बंद कर दिया। एकलव्य ने इस कौशल से बाण चलाये थे कि कुत्ते को किसी प्रकार की चोट नहीं लगी। कुत्ता द्रोण के पास भागा। द्रोण और शिष्य ऐसी श्रेष्ठ धनुर्विद्या देख आश्चर्य मेँ पड़ गए। वे उस महान धुनर्धर की खोज मेँ लग गए अचानक उन्हे एकलव्य दिखाई दिया जिस धनुर्विद्या को वे केवल क्षत्रिय और ब्राह्मणोँ तक सीमित रखना चाहते थे उसे शूद्रोँ के हाथोँ मेँ जाता देख उन्हेँ चिँता होने लगी।  तभी उन्हे अर्जुन को संसार का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर बनाने के वचन की याद आयी।  द्रोण ने एकलव्य से पूछा- तुमने यह धनुर्विद्या किससे सीखी? एकलव्य- आपसे आचार्य एकलव्य ने द्रोण की मिट्टी की बनी प्रतिमा की ओर इशारा किया। द्रोण ने एकलव्य से गुरू दक्षिणा मेँ एकलव्य के दाएँ हाथ का अगूंठा मांगा एकलव्य ने अपना अगूंठा काट कर गुरु द्रोण को अर्पित कर दिया।

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कुमार एकलव्य अंगुष्ठ बलिदान के बाद पिता हिरण्यधनु के पास चला आता है। एकलव्य अपने साधनापूर्ण कौशल से बिना अंगूठे के धनुर्विद्या मेँ पुन: दक्षता प्राप्त कर लेता है। आज के युग मेँ आयोजित होने वाली सभी तीरंदाजी प्रतियोगिताओँ मेँ अंगूठे का प्रयोग नहीँ होता है, अत: एकलव्य को आधुनिक तीरंदाजी का जनक कहना उचित होगा।

पिता की मृत्यु के बाद वह श्रृंगबेर राज्य का शासक बनता हैl अमात्य परिषद की मंत्रणा से वह न केवल अपने राज्य का संचालन करता है, बल्कि निषाद भीलोँ की एक सशक्त सेना और नौसेना गठित करता है और अपने राज्य की सीमाओँ का विस्तार करता है।

विष्णु पुराण और हरिवंश पुराण  में उल्लिखित है कि निषाद वंश का राजा बनने के बाद एकलव्य ने जरासंध की सेना की तरफ से मथुरा पर आक्रमण कर यादव सेना का लगभग सफाया कर दिया था। यादव वंश में हाहाकर मचने के बाद जब कृष्ण ने दाहिने हाथ में महज चार अंगुलियों के सहारे धनुष बाण चलाते हुए एकलव्य को देखा तो उन्हें इस दृश्य पर विश्वास ही नहीं हुआ।

एकलव्य अकेले ही सैकड़ों यादव वंशी योद्धाओं को रोकने में सक्षम था। इसी युद्ध में कृष्ण ने छल से एकलव्य का वध किया था। उसका पुत्र केतुमान महाभारत युद्ध में भीम के हाथ से मारा गया था।

जब युद्ध के बाद सभी पांडव अपनी वीरता का बखान कर रहे थे तब कृष्ण ने अपने अर्जुन प्रेम की बात कबूली थी।

कृष्ण ने अर्जुन से स्पष्ट कहा था कि “तुम्हारे प्रेम में मैंने क्या-क्या नहीं किया है। तुम संसार के सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर कहलाओ इसके लिए मैंने द्रोणाचार्य का वध करवाया, महापराक्रमी कर्ण को कमजोर किया और न चाहते हुए भी तुम्हारी जानकारी के बिना भील पुत्र एकलव्य को भी वीरगति दी ताकि तुम्हारे रास्ते में कोई बाधा ना आए”।


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यह कथा द्वापरयुग की है जब भगवान श्रीकृष्ण के सुदर्शन चक्र ने काशी को जलाकर राख कर दिया था। बाद में यह वाराणसी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। यह कथा इस प्रकार हैः

मगध का राजा जरासंध बहुत शक्तिशाली और क्रूर था। उसके पास अनगिनत सैनिक और दिव्य अस्त्र-शस्त्र थे। यही कारण था कि आस-पास के सभी राजा उसके प्रति मित्रता का भाव रखते थे। जरासंध की अस्ति और प्रस्ति नामक दो पुत्रियाँ थीं। उनका विवाह मथुरा के राजा कंस के साथ हुआ था।

कंस अत्यंत पापी और दुष्ट राजा था। प्रजा को उसके अत्याचारों से बचाने के लिए भगवान श्रीकृष्ण ने उसका वध कर दिया। दामाद की मृत्यु की खबर सुनकर जरासंध क्रोधित हो उठा। प्रतिशोध की ज्वाला में जलते जरासंध ने कई बार मथुरा पर आक्रमण किया। किंतु हर बार श्रीकृष्ण उसे पराजित कर जीवित छोड़ देते थे।

एक बार उसने कलिंगराज पौंड्रक और काशीराज के साथ मिलकर मथुरा पर आक्रमण किया। लेकिन भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें भी पराजित कर दिया। जरासंध तो भाग निकला किंतु पौंड्रक और काशीराज भगवान के हाथों मारे गए।

काशीराज के बाद उसका पुत्र काशीराज बना और श्रीकृष्ण से बदला लेने का निश्चय किया। वह श्रीकृष्ण की शक्ति जानता था। इसलिए उसने कठिन तपस्या कर भगवान शिव को प्रसन्न किया और उन्हें समाप्त करने का वर माँगा। भगवान शिव ने उसे कोई अन्य वर माँगने को कहा। किंतु वह अपनी माँग पर अड़ा रहा।

तब शिव ने मंत्रों से एक भयंकर कृत्या बनाई और उसे देते हुए बोले-“वत्स! तुम इसे जिस दिशा में जाने का आदेश दोगे यह उसी दिशा में स्थित राज्य को जलाकर राख कर देगी। लेकिन ध्यान रखना, इसका प्रयोग किसी ब्राह्मण भक्त पर मत करना। वरना इसका प्रभाव निष्फल हो जाएगा।” यह कहकर भगवान शिव अंतर्धान हो गए।

इधर, दुष्ट कालयवन का वध करने के बाद श्रीकृष्ण सभी मथुरावासियों को लेकर द्वारिका आ गए थे। काशीराज ने श्रीकृष्ण का वध करने के लिए कृत्या को द्वारिका की ओर भेजा। काशीराज को यह ज्ञान नहीं था कि भगवान श्रीकृष्ण ब्राह्मण भक्त हैं। इसलिए द्वारिका पहुँचकर भी कृत्या उनका कुछ अहित न कर पाई। उल्टे श्रीकृष्ण ने अपना सुदर्शन चक्र उसकी ओर चला दिया। सुदर्शन भयंकर अग्नि उगलते हुए कृत्या की ओर झपटा। प्राण संकट में देख कृत्या भयभीत होकर काशी की ओर भागी।

सुदर्शन चक्र भी उसका पीछा करने लगा। काशी पहुँचकर सुदर्शन ने कृत्या को भस्म कर दिया। किंतु फिर भी उसका क्रोध शांत नहीं हुआ और उसने काशी को भस्म कर दिया।

कालान्तर में वारा और असि नामक दो नदियों के मध्य यह नगर पुनः बसा। वारा और असि नदियों के मध्य बसे होने के कारण इस नगर का नाम वाराणसी पड़ गया। इस प्रकार काशी का वाराणसी के रूप में पुनर्जन्म हुआ।

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शिवजी के वरदान के कारण मिले पांच पति


द्रौपदी पूर्व जन्म में एक बड़े ऋषि की गुणवान कन्या थी। वह रूपवती, गुणवती और सदाचारिणी थी, लेकिन पूर्वजन्मों के कर्मों के कारण किसी ने उसे पत्नी रूप में स्वीकार नहीं किया। इससे दुखी होकर वह तपस्या करने लगी। उसकी उग्र तपस्या के कारण भगवान शिव प्रसन्न हए और उन्होंने द्रौपदी से कहा तू मनचाहा वरदान मांग ले। इस पर द्रौपदी इतनी प्रसन्न हो गई कि उसने बार-बार कहा मैं सर्वगुणयुक्त पति चाहती हूं। भगवान शंकर ने कहा तूने मनचाहा पति पाने के लिए मुझसे पांच बार प्रार्थना की है। इसलिए तुझे दुसरे जन्म में एक नहीं पांच पति मिलेंगे। तब द्रौपदी ने कहा मैं तो आपकी कृपा से एक ही पति चाहती हूं। इस पर शिवजी ने कहा मेरा वरदान व्यर्थ नहीं जा सकता है। इसलिए तुझे पांच पति ही प्राप्त होंगे।

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पाण्डु पुत्र भीम के बारे में माना जाता है की उसमे हज़ार हाथियों का बल था जिसके चलते एक बार तो उसने अकेले ही नर्मदा नदी का प्रवाह रोक दिया था।  लेकिन भीम में यह हज़ार हाथियों का बल आया कैसे इसकी कहानी बड़ी ही रोचक है।

कौरवों का जन्म हस्तिनापुर में हुआ था जबकि पांचो पांडवो का जन्म वन में हुआ था।  पांडवों के जन्म के कुछ वर्ष पश्चात पाण्डु का निधन हो गया। पाण्डु की मृत्यु के बाद वन में रहने वाले साधुओं ने विचार किया कि पाण्डु के पुत्रों, अस्थि तथा पत्नी को हस्तिनापुर भेज देना ही उचित है। इस प्रकार समस्त ऋषिगण हस्तिनापुर आए और उन्होंने पाण्डु पुत्रों के जन्म और पाण्डु की मृत्यु के संबंध में पूरी बात भीष्म, धृतराष्ट्र आदि को बताई। भीष्म को जब यह बात पता चली तो उन्होंने कुंती सहित पांचो पांण्डवों को हस्तिनापुर बुला लिया।

हस्तिनापुर में आने के बाद पाण्डवों केवैदिक संस्कार सम्पन्न हुए। पाण्डव तथा कौरव साथ ही खेलने लगे। दौडऩे में, निशाना लगाने तथा कुश्ती आदि सभी खेलों में भीम सभी धृतराष्ट्र पुत्रों को हरा देते थे। भीमसेन कौरवों से होड़ के कारण ही ऐसा करते थे लेकिन उनके मन में कोई वैर-भाव नहीं था। परंतु दुर्योधन के मन में भीमसेन के प्रति दुर्भावना पैदा हो गई। तब उसने उचित अवसर मिलते ही भीम को मारने का विचार किया।

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दुर्योधन ने एक बार खेलने के लिए गंगा तट पर शिविर लगवाया। उस स्थान का नाम रखा उदकक्रीडन। वहां खाने-पीने इत्यादि सभी सुविधाएं भी थीं। दुर्योधन ने पाण्डवों को भी वहां बुलाया। एक दिन मौका पाकर दुर्योधन ने भीम के भोजन में विष मिला दिया। विष के असर से जब भीम अचेत हो गए तो दुर्योधन ने दु:शासन के साथ मिलकर उसे गंगा में डाल दिया। भीम इसी अवस्था में नागलोक पहुंच गए। वहां सांपों ने भीम को खूब डंसा जिसके प्रभाव से विष का असर कम हो गया। जब भीम को होश आया तो वे सर्पों को मारने लगे। सभी सर्प डरकर नागराज वासुकि के पास गए और पूरी बात बताई।

तब वासुकि स्वयं भीमसेन के पास गए। उनके साथ आर्यक नाग ने भीम को पहचान लिया। आर्यक नाग भीम के नाना का नाना था। वह भीम से बड़े प्रेम से मिले। तब आर्यक ने वासुकि से कहा कि भीम को उन कुण्डों का रस पीने की आज्ञा दी जाए जिनमें हजारों हाथियों का बल है। वासुकि ने इसकी स्वीकृति दे दी। तब भीम आठ कुण्ड पीकर एक दिव्य शय्या पर सो गए।

जब दुर्योधन ने भीम को विष देकर गंगा में फेंक दिया तो उसे बड़ा हर्ष हुआ। शिविर के समाप्त होने पर सभी कौरव व पाण्डव भीम के बिना ही हस्तिनापुर के लिए रवाना हो गए। पाण्डवों ने सोचा कि भीम आगे चले गए होंगे। जब सभी हस्तिनापुर पहुंचे तो युधिष्ठिर ने माता कुंती से भीम के बारे में पूछा। तब कुंती ने भीम के न लौटने की बात कही। सारी बात जानकर कुंती व्याकुल हो गई तब उन्होंने विदुर को बुलाया और भीम को ढूंढने के लिए कहा। तब विदुर ने उन्हें सांत्वना दी और सैनिकों को भीम को ढूंढने के लिए भेजा।

उधर नागलोक में भीम आठवें दिन रस पच जाने पर जागे। तब नागों ने भीम को गंगा के बाहर छोड़ दिया। जब भीम सही-सलामत हस्तिनापुर पहुंचे तो सभी को बड़ा संतोष हुआ। तब भीम ने माता कुंती व अपने भाइयों के सामने दुर्योधन द्वारा विष देकर गंगा में फेंकने तथा नागलोक में क्या-क्या हुआ, यह सब बताया। युधिष्ठिर ने भीम से यह बात किसी और को नहीं बताने के लिए कहा।

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कुंती तथा पांडवों ने द्रौपदी के स्वयंवर के विषय में सुना तो वे लोग भी सम्मिलित होने के लिए धौम्य को अपना पुरोहित बनाकर पांचाल देश पहुंचे। कौरवों से छुपने के लिए उन्होंने ब्राह्मण वेश धारण कर रखा था तथा एक कुम्हार की कुटिया में रहने लगे। राजा द्रुपद द्रौपदी का विवाह अर्जुन के साथ करना चाहते थे। लाक्षागृह की घटना सुनने के बाद भी उन्हें यह विश्वास नहीं होता था कि पांडवों का निधन हो गया है, अत: द्रौपदी के स्वयंवर के लिए उन्होंने यह शर्त रखी कि निरंतर घूमते हुए यंत्र के छिद्र में से जो भी वीर निश्चित धनुष की प्रत्यंचा पर चढ़ाकर दिये गये पांच बाणों से, छिद्र के ऊपर लगे, लक्ष्य को भेद देगा, उसी के साथ द्रौपदी का विवाह कर दिया जायेगा। ब्राह्मणवेश में पांडव भी स्वयंवर-स्थल पर पहुंचे। कौरव आदि अनेक राजा तथा राजकुमार तो धनुष की प्रत्यंचा के धक्के से भूमिसात हो गये। कर्ण ने धनुष पर बाण चढ़ा तो लिया किंतु द्रौपदी ने सूत-पुत्र से विवाह करना नहीं चाहा, अत: लक्ष्य भेदने का प्रश्न ही नहीं उठा। अर्जुन ने छद्मवेश में पहुंचकर लक्ष्य भेद दिया तथा द्रौपदी को प्राप्त कर लिया। कृष्ण उसे देखते ही पहचान गये। शेष उपस्थित व्यक्तियों में यह विवाद का विषय बन गया कि ब्राह्मण को कन्या क्यों दी गयी है। अर्जुन तथा भीम के रण-कौशल तथा कृष्ण की नीति से शांति स्थापित हुई तथा अर्जुन और भीम द्रौपदी को लेकर डेरे पर पहुंचे। उनके यह कहने पर कि वे लोग भिक्षा लाये हैं, उन्हें बिना देखे ही कुंती ने कुटिया के अंदर से कहा कि सभी मिलकर उसे ग्रहण करो। पुत्रवधू को देखकर अपने वचनों को सत्य रखने के लिए कुंती ने पांचों पांडवों को द्रौपदी से विवाह करने के लिए कहा। द्रौपदी का भाई धृष्टद्युम्न उन लोगों के पीछे-पीछे छुपकर आया था। वह यह तो नहीं जान पाया कि वे सब कौन हैं, पर स्थान का पता चलाकर पिता की प्रेरणा से उसने उन सबको अपने घर पर भोजन के लिए आमन्त्रित किया। द्रुपद को यह जानकर कि वे पांडव हैं, बहुत प्रसन्नता हुई, किंतु यह सुनकर विचित्र लगा कि वे पांचों द्रौपदी से विवाह करने जा रहे हैं। तभी व्यास मुनि ने अचानक प्रकट होकर एकांत में द्रुपद को उन छहों के पूर्वजन्म की कथा सुनायी कि- एक वार रुद्र ने पांच इन्द्रों को उनके दुरभिमान स्वरूप यह शाप दिया था कि वे मानव-रूप धारण करेंगे। उनके पिता क्रमश: धर्म, वायु, इन्द्र तथा अश्विनीकुमार (द्वय) होंगे। भूलोक पर उनका विवाह स्वर्गलोक की लक्ष्मी के मानवी रूप से होगा। वह मानवी द्रौपदी है तथा वे पांचों इन्द्र पांडव हैं। व्यास मुनि के व्यवस्था देने पर द्रौपदी का विवाह क्रमश: पांचों पांडवों से कर दिया गया। इस तरह से पांचो पांडवो से विवाह करके द्रौपदी पांचाली कहलाई।

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कुरुक्षेत्र को ही क्यों चुना श्री कृष्ण ने महाभारत के युद्ध के लिए ?


महाभारत का युद्ध कुरुक्षेत्र में लड़ा गया। कुरुक्षेत्र में युद्ध लड़े जाने का फैसला भगवान श्री कृष्ण का था। लेकिन उन्होंने कुरुक्षेत्र को ही महाभारत युद्ध के लिए क्यों चुना इसकी कहानी कुछ इस प्रकार है।
जब महाभारत युद्ध होने का निश्चय हो गया तो उसके लिये जमीन तलाश की जाने लगी। श्रीकृष्ण जी बढ़ी हुई असुरता से ग्रसित व्यक्तियों को उस युद्ध के द्वारा नष्ट कराना चाहते थे। पर भय यह था कि यह भाई-भाइयों का, गुरु शिष्य का, सम्बन्धी कुटुम्बियों का युद्ध है। एक दूसरे को मरते देखकर कहीं सन्धि न कर बैठें इसलिए ऐसी भूमि युद्ध के लिए चुननी चाहिए जहाँ क्रोध और द्वेष के संस्कार पर्याप्त मात्रा में हों। उन्होंने अनेकों दूत अनेकों दिशाओं में भेजे कि वहाँ की घटनाओं का वर्णन आकर उन्हें सुनायें।
एक दूत ने सुनाया कि अमुक जगह बड़े भाई ने छोटे भाई को खेत की मेंड़ से बहते हुए वर्षा के पानी को रोकने के लिए कहा। पर उसने स्पष्ट इनकार कर दिया और उलाहना देते हुए कहा-तू ही क्यों न बन्द कर आवे? मैं कोई तेरा गुलाम हूँ। इस पर बड़ा भाई आग बबूला हो गया। उसने छोटे भाई को छुरे से गोद डाला और उसकी लाश को पैर पकड़कर घसीटता हुआ उस मेंड़ के पास ले गया और जहाँ से पानी निकल रहा था वहाँ उस लाश को पैर से कुचल कर लगा दिया।
इस नृशंसता को सुनकर श्रीकृष्ण ने निश्चय किया यह भूमि भाई-भाई के युद्ध के लिए उपयुक्त है। यहाँ पहुँचने पर उनके मस्तिष्क पर जो प्रभाव पड़ेगा उससे परस्पर प्रेम उत्पन्न होने या सन्धि चर्चा चलने की सम्भावना न रहेगी। वह स्थान कुरुक्षेत्र था वहीं युद्ध रचा गया।
महाभारत की यह कथा इंगित करती है की शुभ और अशुभ विचारों एवं कर्मों के संस्कार भूमि में देर तक समाये रहते हैं। इसीलिए ऐसी भूमि में ही निवास करना चाहिए जहाँ शुभ विचारों और शुभ कार्यों का समावेश रहा हो।


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भगवान राम और भगवान शिव में प्रलयंकारीयुद्ध का क्या हुआ परिणाम ?


रामयण के उत्तरार्ध में एक वक़्त ऐसा भी आता है जब विष्णु अवतार राम और स्वयं महादेव के बीच न चाहते हुए भी भयंकर युद्ध होता है। आखिर क्यों होता है यह युद्ध? और क्या निकलता है इसका परिणाम? जानने के लिए पढ़ते है यह पौराणिक कथा

बात उन दिनों कि है जब श्रीराम का अश्वमेघ यज्ञ चल रहा था। श्रीराम के अनुज शत्रुघ्न के नेतृत्व में असंख्य वीरों की सेना सारे प्रदेश को विजित करती जा रही थी जहाँ भी यज्ञ का अश्व जा रहा था। इस क्रम में कई राजाओं के द्वारा यज्ञ का घोड़ा पकड़ा गया लेकिन अयोध्या की सेना के आगे उन्हें झुकना पड़ा. शत्रुघ्न के आलावा सेना में हनुमान, सुग्रीव और भारत पुत्र पुष्कल सहित कई महारथी उपस्थित थे जिन्हें जीतना देवताओं के लिए भी संभव नहीं था। कई जगह भ्रमण करने के बाद यज्ञ का घोडा देवपुर पहुंचा जहाँ राजा वीरमणि का राज्य था। राजा वीरमणि अति धर्मनिष्ठ तथा श्रीराम एवं महादेव के अनन्य भक्त थे। उनके दो पुत्र रुक्मांगद और शुभंगद वीरों में श्रेष्ठ थे। राजा वीरमणि के भाई वीरसिंह भी एक महारथी थे। राजा वीरमणि ने भगवान रूद्र की तपस्या कर उन्हें प्रसन्न किया था और महादेव ने उन्हें उनकी और उनके पूरे राज्य की रक्षा का वरदान दिया था। महादेव के द्वारा रक्षित होने के कारण कोई भी उनके राज्य पर आक्रमण करने का सहस नहीं करता था।
जब अश्व उनके राज्य में पहुंचा तो राजा वीरमणि के पुत्र रुक्मांगद ने उसे बंदी बना लिया और अयोध्या के साधारण सैनिकों से कहा यज्ञ का घोडा उनके पास है इसलिए वे जाकर शत्रुघ्न से कहें की विधिवत युद्ध कर वो अपना अश्व छुड़ा लें। जब रुक्मांगद ने ये सूचना अपने पिता को दी तो वो बड़े चिंतित हुए और अपने पुत्र से कहा की अनजाने में तुमने श्रीराम के यज्ञ का घोडा पकड़ लिया है। श्रीराम हमारे मित्र हैं और उनसे शत्रुता करने का कोई औचित्य नहीं है इसलिए तुम यज्ञ का घोडा वापस लौटा आओ। इसपर रुक्मांगद ने कहा कि हे पिताश्री, मैंने तो उन्हें युद्ध की चुनौती भी दे दी है अतः अब उन्हें बिना युद्ध के अश्व लौटना हमारा और उनका दोनों का अपमान होगा।  अब तो जो हो गया है उसे बदला नहीं जा सकता इसलिए आप मुझे युद्ध कि आज्ञा दें। पुत्र की बात सुनकर वीरमणि ने उसे सेना सुसज्जित करने की आज्ञा दे दी। राजा वीरमणि अपने भाई वीरसिंह और अपने दोनों पुत्र रुक्मांगद और शुभांगद के साथ विशाल सेना ले कर युद्ध क्षेत्र में आ गए।
इधर जब शत्रुघ्न को सूचना मिली की उनके यज्ञ का घोडा बंदी बना लिया गया है तो वो बहुत क्रोधित हुए एवं अपनी पूरी सेना के साथ युद्ध के लिए युध्क्षेत्र में आ गए। उन्होंने पूछा की उनकी सेना से कौन अश्व को छुड़ाएगा तो भारत पुत्र पुष्कल ने कहा कि तातश्री, आप चिंता न करें. आपके आशीर्वाद और श्रीराम के प्रताप से मैं आज ही इन सभी योधाओं को मार कर अश्व को मुक्त करता हूँ।  वे दोनों इस प्रकार बात कर रहे थे कि पवनसुत हनुमान ने कहा कि राजा वीरमणि के राज्य पर आक्रमण करना स्वयं परमपिता ब्रम्हा के लिए भी कठिन है क्योंकि ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है। अतः उचित यही होगा कि पहले हमें बातचीत द्वारा राजा वीरमणि को समझाना चाहिए और अगर हम न समझा पाए तो हमें श्रीराम को सूचित करना चाहिए।  राजा वीरमणि श्रीराम का बहुत आदर करते हैं इसलिये वे उनकी बात नहीं टाल पाएंगे। हनुमान की बात सुन कर शत्रुघन बोले की हमारे रहते अगर श्रीराम को युध्भूमि में आना पड़े, ये हमारे लिए अत्यंत लज्जा की बात है। अब जो भी हो हमें युद्ध तो करना ही पड़ेगा। ये कहकर वे सेना सहित युद्धभूमि में पहुच गए।
भयानक युद्ध छिड़ गया। भरत पुत्र पुष्कल सीधा जाकर राजा वीरमणि से भिड गया। दोनों अतुलनीय वीर थे। वे दोनों तरह तरह के शास्त्रार्थों का प्रयोग करते हुए युद्ध करने लगे। हनुमान राजा वीरमणि के भाई महापराक्रमी वीरसिंह से युद्ध करने लगे।  रुक्मांगद और शुभांगद ने शत्रुघ्न पर धावा बोल दिया। पुष्कल और वीरमणि में बड़ा घमासान युद्ध हुआ। अंत में पुष्कल ने वीरमणि पर आठ नाराच बाणों से वार किया। इस वार को राजा वीरमणि सह नहीं पाए और मुर्छित होकर अपने रथ पर गिर पड़े।  वीरसिंह ने हनुमान पर कई अस्त्रों का प्रयोग किया पर उन्हें कोई हानि न पहुंचा सके। हनुमान ने एक विकट पेड़ से वीरसिंह पर वार किया इससे वीरसिंह रक्तवमन करते हुए मूर्छित हो गए। उधर श्रीशत्रुघ्न और राजा वीरमणि के पुत्रों में असाधारण युद्ध चल रहा था। अंत में कोई चारा न देख कर शत्रुघ्न ने दोनों भाइयों को नागपाश में बाँध लिया। अपनी विजय देख कर शत्रुघ्न की सेना के सभी वीर सिंहनाद करने लगे। उधर राजा वीरमणि की मूर्छा दूर हुई तो उन्होंने देखा की उनकी सेना हार के कगार पर है। ये देख कर उन्होंने भगवान रूद्र का स्मरण किया।
महादेव ने अपने भक्त को मुसीबत में जान कर वीरभद्र के नेतृत्व में नंदी, भृंगी सहित सारे गणों को युध्क्षेत्र में भेज दिया।  महाकाल के सारे अनुचर उनकी जयजयकार करते हुए अयोध्या की सेना पर टूट पड़े। शत्रुघ्न, हनुमान और बांकी योधाओं को लगा की जैसे प्रलय आ गया हो। जब उन्होंने भयानक मुख वाले रुद्रावतार वीरभद्र, नंदी, भृंगी सहित महादेव की सेना देखी तो सारे सैनिक भय से कांप उठे। शत्रुघ्न ने हनुमान से कहा की जिस वीरभद्र ने बात ही बात में दक्ष प्रजापति की मस्तक काट डाला था और जो तेज और समता में स्वयं महाकाल के सामान है उसे युद्ध में कैसे हराया जा सकता है। ये सुनकर पुष्कल ने कहा की हे तातश्री, आप दुखी मत हों। अब तो जो भी हो हमें युद्ध तो करना हीं पड़ेगा।  ये कहता हुए पुष्कल वीरभद्र से, हनुमान नंदी से और शत्रुघ्न भृंगी से जा भिड़े। पुष्कल ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग वीरभद्र पर कर दिया लेकिन वीरभद्र ने बात ही बात में उसे काट दिया। उन्होंने पुष्कल से कहा की हे बालक, अभी तुम्हारी आयु मृत्यु को प्राप्त होने की नहीं हुई है इसलिए युध्क्षेत्र से हट जाओ। उसी समय पुष्कल ने वीरभद्र पर शक्ति से प्रहार किया जो सीधे उनके मर्मस्थान पर जाकर लगा। इसके बाद वीरभद्र ने क्रोध से थर्राते हुए एक त्रिशूल से पुष्कल का मस्तक काट लिया और भयानक सिंहनाद किया। उधर भृंगी आदि गणों ने शत्रुघ्न पर भयानक आक्रमण कर दिया। अंत में भृंगी ने महादेव के दिए पाश में शत्रुघ्न को बाँध दिया।  हनुमान अपनी पूरी शक्ति से नंदी से युद्ध कर रहे थे। उन दोनों ने ऐसा युद्ध किया जैसा पहले किसी ने नहीं किया था। दोनों श्रीराम के भक्त थे और महादेव के तेज से उत्पन्न हुए थे। काफी देर लड़ने के बाद कोई और उपाय न देख कर नंदी ने शिवास्त्र के प्रयोग कर हनुमान को पराभूत कर दिया। अयोध्या के सेना की हार देख कर राजा वीरमणि की सेना में जबरदस्त उत्साह आ गया और वे बांकी बचे सैनिकों पर टूट पड़े। ये देख का हनुमान ने शत्रुघ्न से कहा की मैंने आपसे पहले ही कहा था की ये नगरी महाकाल द्वारा रक्षित है लेकिन आपने मेरी बात नहीं मानी। अब इस संकट से बचाव का एक ही उपाय की हम सब श्रीराम को याद करें। ऐसा सुनते ही सारे सैनिक शत्रुघ्न, पुष्कल एवं हनुमान सहित श्रीराम को याद करने लगे।
अपने भक्तों की पुकार सुन कर श्रीराम तत्काल ही लक्षमण और भरत के साथ वहां आ गए। अपने प्रभु को आया देख सभी हर्षित हो गए एवं सबको ये विश्वास हो गया की अब हमारी विजय निश्चित है। श्रीराम के आने पर जैसे पूरी सेना में प्राण का संचार हो गया। श्रीराम ने सबसे पहले शत्रुघ्न को मुक्त कराया और उधर लक्षमण ने हनुमान को मुक्त करा दिया. जब श्रीराम, लक्षमण और श्रीभरत ने देखा की पुष्कल मृत्यु को प्राप्त हो चुके हैं तो उन्हें बड़ा दुःख हुआ। भरत तो शोक में मूर्छित हो गए। श्रीराम ने क्रोध में आकर वीरभद्र से कहा कि तुमने जिस प्रकार पुष्कल का वध किया है उसी प्रकार अब अपने जीवन का भी अंत समझो। ऐसा कहते हुए श्रीराम ने सारी सेना के साथ शिवगणों पर धावा बोल दिया। जल्द ही उन्हें ये पता चल गया कि शिवगणों पर साधारण अस्त्र बेकार है इसलिए उन्होंने महर्षि विश्वामित्र द्वारा प्रदान किये दिव्यास्त्रों से वीरभद्र और नंदी सहित सारी सेना को विदीर्ण कर दिया। श्रीराम के प्रताप से पार न पाते हुए सारे गणों ने एक स्वर में महादेव का आव्हान करना शुरू कर दिया। जब महादेव ने देखा कि उनकी सेना बड़े कष्ट में है तो वे स्वयं युद्धक्षेत्र में प्रकट हुए।
इस अद्भुत दृश्य को देखने के लिए परमपिता ब्रम्हा सहित सारे देवता आकाश में स्थित हो गए। जब महाकाल ने युद्धक्षेत्र में प्रवेश किया तो उनके तेज से श्रीराम कि सारी सेना मूर्छित हो गयी। जब श्रीराम ने देखा कि स्वयं महादेव रणक्षेत्र में आये हैं तो उन्होंने शस्त्र का त्याग कर भगवान रूद्र को दंडवत प्रणाम किया एवं उनकी स्तुति की। उन्होंने महाकाल की स्तुति करते हुए कहा की हे सारे ब्रम्हांड के स्वामी आपके ही प्रताप से मैंने महापराक्रमी रावण का वध किया, आप स्वयं ज्योतिर्लिंग में रामेश्वरम में पधारे। हमारा जो भी बल है वो भी आपके आशीर्वाद के फलस्वरूप हीं है। ये जो अश्वमेघ यज्ञ मैंने किया है वो भी आपकी ही इच्छा से ही हो रहा है इसलिए हम पर कृपा करें और इस युद्ध का अंत करें। ये सुन कर भगवान रूद्र बोले की हे राम, आप स्वयं विष्णु के दुसरे रूप है मेरी आपसे युद्ध करने की कोई इच्छा नहीं है फिर भी चूँकि मैंने अपने भक्त वीरमणि को उसकी रक्षा का वरदान दिया है इसलिए मैं इस युद्ध से पीछे नहीं हट सकता अतः संकोच छोड़ कर आप युद्ध करें। श्रीराम ने इसे महाकाल की आज्ञा मन कर युद्ध करना शुरू किया। दोनों में महान युद्ध छिड़ गया जिसे देखने देवता लोग आकाश में स्थित हो गए। श्रीराम ने अपने सारे दिव्यास्त्रों का प्रयोग महाकाल पर कर दिया पर उन्हें संतुष्ट नहीं कर सके. अंत में उन्होंने पाशुपतास्त्र के संधान किया और भगवान शिव से बोले की हे प्रभु, आपने ही मुझे ये वरदान दिया है की आपके द्वारा प्रदत्त इस अस्त्र से त्रिलोक में कोई पराजित हुए बिना नहीं रह सकता, इसलिए हे महादेव आपकी ही आज्ञा और इच्छा से मैं इसका प्रयोग आप पर हीं करता हूँ। ये कहते हुए श्रीराम ने वो महान दिव्यास्त्र भगवान शिव पर चला दिया। वो अस्त्र सीधा महादेव के हृदयस्थल में समां गया और भगवान रूद्र इससे संतुष्ट हो गए। उन्होंने प्रसन्नतापूर्वक श्रीराम से कहा की आपने युद्ध में मुझे संतुष्ट किया है इसलिए जो इच्छा हो वार मांग लें. इसपर श्रीराम ने कहा की हे भगवान यहाँ इस युद्ध क्षेत्र में भ्राता भरत के पुत्र पुष्कल के साथ असंख्य योद्धा वीरगति को प्राप्त हो गए है, उन्हें कृपया जीवनदान दीजिये. महादेव ने मुस्कुराते हुए तथास्तु कहा और पुष्कल समेत दोनों ओर के सारे योद्धाओं को जीवित कर दिया. इसके बाद उनकी आज्ञा से राजा वीरमणि ने यज्ञ का घोडा श्रीराम को लौटा दिया और अपना राज्य रुक्मांगद को सौंप कर वे भी शत्रुघ्न के साथ आगे चल दिए।

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क्यों जाना पड़ा था अर्जुन को अकेले ही 12 वर्ष वनवास ?

महाभारत की कथा में आता है की अर्जुन को एक बार एक नियम तोड़ने के कारण अकेले ही 12 वर्ष वनवास जाना पड़ता है। आइए जानते हैआखिर क्या था वो नियम और क्यों तोडा था अर्जुन ने वो नियम?
अज्ञातवास के दौरान पांडवों का विवाह द्रोपदी से हो जाता है। अज्ञातवास समाप्त होने के बाद वो सब वापस इन्द्रप्रस्थलौट आते हैं। इन्द्रप्रस्थ में राज्य पाकर धर्मराज युधिष्ठिर अपने भाइयों और द्रोपदी के साथ सुख पूर्वक रहने लगे। एक दिन की बात है जबसभी पाण्डव राज्यसभा में बैठेथे तभीनारद मुनिवहां पहुंचे। पांडवो नेनारद मुनि का आदर सत्कार किया,वहांद्रोपदी भी आईऔर नारद मुनि का आर्शीवाद लेकर चली गई। द्रोपदी के जाने के पश्चातनारद नेपाण्डवों से कहा कीपाण्डवों आप पांच भाइयों के बीच द्रोपदीमात्र एक पत्नी है, इसलिए तुम लोगों को ऐसा नियम बना लेना चाहिए ताकि आपस में कोई झगड़ा ना हो। क्योंकि एक स्त्री को लेकर भाइयों में झगडे मौत का कारण भी बन जाते है। ऐसा कहकर नारद मुनि उन्हें एक कथा सुनाई
प्राचीन समय की बात है। सुन्द और उपसुन्द दो असुर भाई थे। दोनों के बारे में ऐसा कहा जाता है दोनों दो जिस्म एक जान हैं। उन्होंने त्रिलोक जीतने की इच्छा से विधिपूर्वक दीक्षा ग्रहण करके तपस्या प्रारंभ की। कठोर तप के बाद ब्रह्माजी प्रकट हुए। दोनों भाईयों ने अमर होने का वर मांगा। तबब्रह्माकहा वह अधिकार तो सिर्फदेवताओं को है। तुम कुछ और मांग लो। तब दोनों ने कहा कि हम दोनों को ऐसा वर दें कि हम सिर्फ एक- दुसरे के द्वारा मारे जाने पर ही मरें। ब्रह्रा जी ने दोनों को वरदान दे दिया। दोनों भाईयों ने वरदान पाने के बाद तीनों लोको में कोहराम मचा दिया। सभी देवता परेशान होकरब्रह्माकी शरण में गए। तबब्रह्माजी ने विश्वकर्मासेएक ऐसी सुन्दर स्त्री बनाने के लिए कहा जिसे देखकर हर प्राणी मोहित हो जाए। उसके बाद एक दिन दोनों भाई एक पर्वत पर आमोद-प्रमोद कर रहे थे। तभी वहां तिलोतमा (विश्वकर्मा की सुन्दर रचना) कनेर के फूल तोडऩे लगी। दोनों भाई उस पर मोहित हो गए। दोनों में उसके कारण युद्ध हुआ। सुन्द और उपसुन्द दोनों मारे गए।
तब कहानी सुनाने के बाद नारद बोले: इसलिए मैं आप लोगों से यह बात कह रहा हूं। तब पाण्डवों ने उनकी प्रेरणा से यह प्रतिज्ञा की एक नियमित समय तक हर भाई द्रोपदी के पास रहेगा। एकान्त में यदि कोई एक भाई दूसरे भाई को देख लेगा तो उसे बारह वर्ष के लिए वनवास होगा।
पाण्डव द्रोपदी के पास नियमानुसार रहते। एक दिन की बात है लुटेरो ने किसी ब्राह्मणकी गाय लुट ली और उन्हे लेकर भागने लगे।ब्राह्मणपाण्डवों के पास आया और अपना करूण रूदन करने लगा। ब्राह्मणने कहा कि पाण्डवतुम्हारे राज्य में मेरी गाय छीन ली गई है। अगर तुम अपनी प्रजा की रक्षा का प्रबंध नहीं कर सकते तो तुम नि:संदेह पापी हो। लेकिन पांडवो केसामने अड़चन यह थी कि जिस कमरे में राजा युधिष्ठिर द्रोपदी के साथ बैठे हुए थे। उसी कमरे में उनके अस्त्र-शस्त्र थे। एक ओर कौटुम्बिक नियम और दुसरी तरफ ब्राह्मणकी करूण पुकार। तब अर्जुन ने प्रण किया की मुझे इस ब्राह्मणकी रक्षा करनी हैचाहे फिर मुझे इसका प्रायश्चित क्यों ना करना पड़े? उसके बाद अर्जुन राजा युधिष्ठिर के घर में नि:संकोच चले गए। राजा से अनुमति लेकर धनुष उठाया और आकरब्राह्मणसे बोलेब्राह्मणदेवता थोड़ी देर रूकिए में अभी आपकी गायों को आपको लौटा देता हूं। अर्जुन ने बाणों की बौछार से लुटेरों को मारकर गाय ब्राह्मण को सौंप दी। उसके बाद अर्जुन ने आकर युधिष्ठिर से कहा। मैंने एकांत ग्रह में अकार अपनी प्रतिज्ञा तोड़ दी इसलिए मुझे वनवास पर जाने की आज्ञा दें। युधिष्ठिर ने कहा तुम मुझ से छोटे हो और छोटे भाई यदि अपनी स्त्री के साथ एकांत में बैठा हो तो बड़े भाई के द्वारा उनका एकांत भंग करना अपराध है। लेकिन जब छोटा भाई यदि बड़े भाई का एकांत भंग करे तो वह क्षमा का पात्र है। अर्जुन ने कहा आप ही कहते हैं धर्म पालन में बहानेबाजी नहीं करनी चाहिए। उसके बाद अर्जुन ने वनवास की दीक्षा ली और वनवास को चल पड़े।


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हिन्दू ग्रन्थो  के अनुसार श्रावण मास की पूर्णिमा तिथि को रक्षाबंधन का त्योहार मनाया जाता है। इसे आमतौर पर भाई-बहनों का पर्व मनातेे हैं लेकिन, अलग-अलग स्थानों एवं लोक परम्परा के अनुसार अलग-अलग रूप में रक्षाबंधन का पर्व मानते हैं।

इस शाल 2016 मे भारतीय कैलेन्डर के अनुसार रक्षाबंधन का त्योहार

18 अगस्त 

दिन - बृहस्पतिवार को मनाया जायेगा..


 कई जगहो पे देखा जाता है भाई बहनों के अलावा पुरोहित भी अपने यजमान को राखी बांधते हैं और यजमान अपने पुरोहित को। इस प्रकार राखी बंधकर दोनों एक दूसरे के कल्याण एवं उन्नति की कामना करते हैं। और कई जगहो पे पत्नीया अपने पती को राखी बाधती है, प्रकृति भी जीवन के रक्षक हैं इसलिए रक्षाबंधन के दिन कई स्थानों पर वृक्षों को भी राखी बांधा जाता है। ईश्वर संसार के रचयिता एवं पालन करने वाले हैं अतः इन्हें रक्षा सूत्र अवश्य बांधना चाहिए। वैसे भी इस पर्व का संबंध रक्षा से है। जो भी आपकी रक्षा करने वाला है उसके प्रति आभार दर्शाने के लिए आप उसे रक्षासूत्र बांध सकते हैं।

धार्मिक त्यौहारों के पीछे सदैव कुछ कहानियाँ होती हैं जिनके कारण त्यौहार मनाये जाते हैं | यह कहानियाँ ही मानव जीवन में इन त्यौहारों के प्रति आस्था बनाये रखती हैं |

अगर बात रक्षाबंधन की शुरूवात कि जाये तो रक्षाबंधन कब प्रारम्भ हुआ इसके विषय में कोई निश्चित कथा नहीं है लेकिन जैसा कि भविष्य पुराण में लिखा है, उसके अनुसार कुछ कथा जो ईस प्रकार है..

1

शिशुपाल के वध के समय भगवान कृष्ण की उंगली कट गई थी तब द्रौपदी ने अपनी साड़ी का आंचल फाड़कर कृष्ण की उंगली पर बांध दिया। इस दिन सावन पूर्णिमा की तिथि थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने द्रौपदी को वचन दिया कि समय आने पर वह आंचल के एक-एक सूत का कर्ज उतारेंगे। द्रौपदी के चिरहरण के समय भगवान श्रीकृष्ण ने इसी वचन को निभाया।

2.

इतिहास में भी कई ऐसी कई कहानियाँ हैं जिसमे बड़े-बड़े युद्ध को इस रक्षा सूत्र ने बचाया हैं | पहले वादे की कीमत जान से बढ़कर हुआ करती थी | अगर भाई से बहन को उसके पति की रक्षा का वचन दिया हैं तो आन बान शान परे रख उस वचन का मान रखा जाता था

राजपुताना इतिहास में महारानी कर्णावती ने अपने राज्य की रक्षा हेतु मुग़ल बादशाह हुमायु को रक्षा सूत्र बांधा था और इसके बदले में हुमायु ने बहादुर शाह जफ्फर से चित्तोड़ की रक्षा की थी | इस तरह इस त्यौहार का मान इतिहास में रखा जाता है.

3.

एक प्रचलीत कहाँनीयो मे से एक कथा ये भी है..

देवताओं और दानवो के बीच युद्ध चल रहा था जिसमे दानवो की ताकत देवताओं से कई गुना अधिक थी | देवता हर बाजी हारते दिखाई पड़ रहे थे | देवराज इंद्र के चेहरे पर भी संकट के बादल उमड़ पड़े थे | उनकी ऐसी स्थिती देख उनकी पत्नी इन्द्राणी भयभीत एवं चिंतित थी | इन्द्राणी धर्मपरायण नारी थी उन्होंने अपने पति की रक्षा हेतु घनघोर तप किया और उस तप से एक रक्षासूत्र उत्पन्न किया जिसे इन्द्राणी ने इंद्र की दाहिनी कलाई पर बांधा | वह दिन श्रावण की पूर्णिमा का दन था | और उस दिन देवताओं की जीत हुई और इंद्र सही सलामत स्वर्गलोक आये | तब एक रक्षासूत्र पत्नी ने अपने पति को बांधा था लेकिन आगे जाकर यह प्रथा भाई बहन के रिश्ते के बीच निभाई जाने लगी जो आज रक्षाबंधन के रूप में मनाई जाती हैं |

एक बार भगवान श्रीकृष्ण ने रक्षा सूत्र के विषय में युधिष्ठिर से कहा था कि रक्षाबंधन का त्योहार अपनी सेना के साथ मनाओ इससे पाण्डवों एवं उनकी सेना की रक्षा होगी। श्रीकृष्ण ने यह भी कहा था कि रक्षा सूत्र में अद्भुत शक्ति होती है..

रक्षा बंधन पर्व मनाने की विधि : 

रक्षा बंधन के दिन सुबह भाई-बहन स्नान करके भगवान की पूजा करते हैं। इसके बाद रोली, अक्षत, कुंमकुंम एवं दीप जलकर थाल सजाते हैं। इस थाल में रंग-बिरंगी राखियों को रखकर उसकी पूजा करते हैं फिर बहनें भाइयों के माथे पर कुंमकुंम, रोली एवं अक्षत से तिलक करती हैं।

इसके बाद भाई की दाईं कलाई पर रेशम की डोरी से बनी राखी बां धती हैं और मिठाई से भाई का मुंह मीठा कराती हैं। राखी बंधवाने के बाद भाई बहन को रक्षा का आशीर्वाद एवं उपहार व धन देता है। बहनें राखी बांधते समय भाई की लम्बी उम्र एवं सुख तथा उन्नति की कामना करती है।

इस दिन बहनों के हाथ से राखी बंधवाने से भूत-प्रेत एवं अन्य बाधाओं से भाई की रक्षा होती है। जिन लोगों की बहनें नहीं हैं वह आज के दिन किसी को मुंहबोली बहन बनाकर राखी बंधवाएं तो शुभ फल मिलता है। इन दिनों चांदी एवं सोनी की राखी का प्रचलन भी काफी बढ़ गया है। चांदी एवं सोना शुद्ध धातु माना जाता है अतः इनकी राखी बांधी जा सकती है लेकिन, इनमें रेशम का धागा लपेट लेना चाहिए।

रक्षाबंधन का मंत्र : येन बद्धो बलिः राजा दानवेन्द्रो महाबलः। तेन त्वामभिबध्नामि रक्षे मा चल मा चल॥


रक्षाबंधन सायरी

[1]

चावल  की  खुशबु  और  केसर  का  सिंगार

भाल  तिलक  और  खुशियो  की  बौछार 

बहनो  का  साथ  और  बेसुमार  प्यार 

मुबारक  हो  आपको  राखी  का  त्यौहार



[2]

मांगी थी दुआ हमने रबसे,

देना मुझे एक प्यारी “बहन” जो अलग हो सबसे,

उस खुदा ने दे दी हमें एक प्यारी सी “बहन” और कहा-

संभालो इसे ये “अनमोल” है सबसे…

Happy Rakhi…!



[3]


बहन का प्यार किसी दुआ से कम नहीं होता;

वो चाहे दूर भी हो तो ग़म नहीं होता;

अक्सर रिश्ते दूरियों से फीके पड़ जाते हैं;

पर भाई-बहन का प्यार कभी कम नहीं होता।

राखी की शुभ कामनायें!


[4]

याद है हमें हमारा वो बचपन;

वो लड़ना, वो झगड़ना और वो मना लेना;

यही होता है भाई-बहन का प्यार;

इसी प्यार को बढ़ाने आ रहा है राखी का त्यौहार।

राखी की शुभकामनायें!



[5]


बांध रही हूँ राखी मैं भैया, पर एक वचन देना होगा;

नहीं कभी भी बेटी से जीवन में घृणा करना होगा;

बाप बनोगे कल तुम लेकिन बेटी को भी अपनाओगे,

करके जांच गर्भ में उसकी हत्या नहीं कराओगे;

मां, बुआ, चाची, भाभी सब किसी-न-किसी की बेटी हैं;

यह जो तेरी बहना है, यह भी तो पापा की बेटी है;

बेटी अगर नहीं होगी तो बहू कहाँ से लाओगे?

अपने बेटे के हाथों में राखी किससे बँधवाओगे?



समाप्त



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आप सभी को 15 अगस्त की हार्दिक बधाई. आज बहुत खुशी है की हम सब आजाद है. लेकीन हमे आज आजादी की वो खुशी नही है जो गुलामी सहने वाले को आजादी के बाद हुई थी. हम सब जानते ही कहाँ है गुलामी क्या थी.. सदियों की गुलामी के पश्चात 15 अगस्त सन् 1947 के दिन आजाद हुआ था। पहले हम अंग्रेजों के गुलाम थे। उनके बढ़ते हुए अत्याचारों से सारे भारतवासी त्रस्त हो गए और तब विद्रोह की ज्वाला भड़की और देश के अनेक वीरों ने प्राणों की बाजी लगाई, गोलियां खाईं और अंतत: आजादी पाकर ही चैन ‍लिया। इस दिन हमारा देश आजाद हुआ, इसलिए इसे स्वतंत्रता दिवस कहते हैं।

अंग्रेजों के अत्याचारों और अमानवीय व्यवहारों से त्रस्त भारतीय जनता एकजुट हो इससे छुटकारा पाने हेतु कृतसंकल्प हो गई। सुभाषचंद्र बोस, भगतसिंह, चंद्रशेखर आजाद ने क्रांति की आग फैलाई और अपने प्राणों की आहुति दी। तत्पश्चात सरदार वल्लभभाई पटेल, गांधीजी, नेहरूजी ने सत्य, अहिंसा और बिना हथियारों की लड़ाई लड़ी। सत्याग्रह आंदोलन किए, लाठियां खाईं, कई बार जेल गए और अंग्रेजों को हमारा देश छोड़कर जाने पर मजबूर कर दिया। इस तरह 15 अगस्त 1947 का दिन हमारे लिए 'स्वर्णिम दिन' बना। हम, हमारा देश स्वतंत्र हो गए।

यह दिन 1947 से आज तक हम बड़े उत्साह और प्रसन्नता के साथ मनाते चले आ रहे हैं। इस दिन सभी विद्यालयों, सरकारी कार्यालयों पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया जाता है, राष्ट्रगीत गाया जाता है और इन सभी महापुरुषों, शहीदों को श्रद्धांजल‍ि दी जाती है जिन्होंने स्वतंत्रता हेतु प्रयत्न किए। मिठाइयां बांटी जाती हैं।

हमारी राजधानी दिल्ली में हमारे प्रधानमंत्री लाल किले पर राष्ट्रीय ध्वज फहराते हैं।

 वहां यह त्योहार बड़ी धूमधाम और भव्यता के साथ मनाया जाता है। सभी शहीदों को श्रद्धां‍जलि दी जाती है। प्रधानमंत्री राष्ट्र के नाम संदेश देते हैं। अनेक सभाओं और कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।

इस दिन का ऐतिहासिक महत्व है। इस दिन की याद आते ही उन शहीदों के प्रति श्रद्धा से मस्तक अपने आप ही झुक जाता है जिन्होंने स्वतंत्रता के यज्ञ में अपने प्राणों की आहु‍ति दी। इसलिए हमारा पुनीत कर्तव्य है कि हम हमारे स्वतंत्रता की रक्षा करें। देश का नाम विश्व में रोशन हो, ऐसा कार्य करें। देश की प्रगति के साधक बनें न‍ कि बाधक।

घूस, जमाखोरी, कालाबाजारी को देश से समाप्त करें। भारत के नागरिक होने के नाते स्वतंत्रता का न तो स्वयं दुरुपयोग करें और न दूसरों को करने दें। एकता की भावना से रहें और अलगाव, आंतरिक कलह से बचें।

हमारे लिए स्वतंत्रता दिवस का बड़ा महत्व है। हमें अच्छेह कार्य करना है और देश को आगे बढ़ाना है।

जानीये ये छ: बाते और -

[1] 

जवाहर लाल नेहरू जी ने ऐतिहासिक भाषण 'ट्रिस्ट विद डेस्टनी' 14 अगस्त की मध्यरात्रि को वायसराय लॉज (मौजूदा राष्ट्रपति भवन) से दिया था. तब नेहरू प्रधानमंत्री नहीं बने थे. इस भाषण को पूरी दुनिया ने सुना, लेकिन गांधी जी उस दिन 9 बजे सोने चले गये थे..

[2]

  हर स्वतंत्रता दिवस पर भारतीय प्रधानमंत्री लाल किले से झंडा फहराते हैं. लेकिन 15 अगस्त, 1947 को ऐसा नहीं हुआ था. लोकसभा सचिवालय के एक शोध पत्र के मुताबिक नेहरू ने 16 अगस्त, 1947 को लाल किले से झंडा फहराया था.

[3]

15 अगस्त तक भारत और पाकिस्तान के बीच सीमा रेखा का निर्धारण नहीं हुआ था. इसका फ़ैसला 17 अगस्त को रेडक्लिफ लाइन की घोषणा से हुआ.

[4]

  भारत 15 अगस्त को आज़ाद जरूर हो गया, लेकिन उसका अपना कोई राष्ट्र गान नहीं था. रवींद्रनाथ टैगोर जन-गण-मन 1911 में ही लिख चुके थे, लेकिन यह राष्ट्रगान 1950 में ही बन पाया.

[5]

15 अगस्त भारत के अलावा तीन अन्य देशों का भी स्वतंत्रता दिवस है. दक्षिण कोरिया जापान से 15 अगस्त, 1945 को आज़ाद हुआ. ब्रिटेन से बहरीन 15 अगस्त, 1971 को और फ्रांस से कांगो 15 अगस्त, 1960 को आज़ाद हुआ

[6]

भारत के तत्कालीन वायसराय लॉर्ड माउंटबेटन के प्रेस सचिव कैंपबेल जॉनसन के मुताबिक़ मित्र देश की सेना के सामने जापान के समर्पण की दूसरी वर्षगांठ 15 अगस्त को पड़ रही थी, इसी दिन भारत को आज़ाद करने का फ़ैसला हुआ.

15 अगस्त सायरी

15 अगस्त एक ऐसा दिन है जो हमे हमारी आजादी की याद दिलाता है, उन देशभक्तो की याद दिलाता है जिन्होने इस देश के लिये अपने घर,अपने परिवार,अपनी जिन्दगी,अपनी जान तक गवा दी..
आईये उनके बारे मे कुछ सायरीया पढ़ते है. अच्छी लगे तो फेशबुक, व्हाटसप etc. पे सेयर जरूर करना..

[1]

ना पुछो जमाने को, क्या हमारी कहानी है, हमारी पहचान तो सिर्फ ये है की हम हिन्दुस्तानी है.

[2]

 दे सलामी इस तिरंगेको जिस से तेरी शान हैं, सर हमेशा ऊँचा रखना इसका, जब तक दिल में जान हैं..!!

[3]

इश्क तो करता है हर कोई, महबुब पे मरता है हर कोई, कभी वतन को महबुब बना कर देखो,तुझ पर मरेगा हर कोई,

[4]

 हर वक्त मेरी आँखो मे धरती का सपने हो,
जब कभी मरू तो तिरंगा मेरा कफन हो, और कोई ख्वाहिश नही जिन्दगी मे, 
जब कभी जन्मु  तो भारत मेरा वतन हो. 

[5]

मैं भारत बरस का हरदम अमित सम्मान करता हूँ, यहाँ की चांदनी मिट्टी का ही गुणगान करता हूँ, मुझे चिंता नहीं है स्वर्ग जाकर मोक्ष पाने की, तिरंगा हो कफ़न मेरा, बस यही अरमान रखता हूँ।.

[6]

जमाने भर मे मिलते हे आशिक कई ,
मगर वतन से खूबसूरत कोई सनम नहीं होता ,
नोटों में भी लिपट कर, सोने में सिमटकर मरे हे कई ,
मगर तिरंगे से खूबसूरत कोई कफ़न नहीं होता.

[7]

 कल जमाना बदलेगा इस बात का किस को यकीं
आओ...हम ऐसा करें...खुद को बदल कर देख लें.

[8]

अब तक जिसका खून न खौला,वो खून नहीं वो पानी है
जो देश के काम ना आये ,वो बेकार जवानी है
बोलो भारत माता की जय....


15 अगस्त स्वतंत्रता दिवस की बधाई.

[9]

न सर झुका है कभी..और न झुकायेंगे कभी,
जो अपने दम पे जियें...सच में ज़िन्दगी है वही.
जिओ सच्चे भारतीय बन कर...


[10]

 चड़ गये जो हंसकर सूली,खाई जिन्होने सीने पर गोली,
हम उनको प्रणाम करते हैं,जो मिट गये देश पर.
हम उनको सलाम करते हैं...

[11]

आजाद की कभी शाम नहीं होने देंगें;शहीदों की कुर्बानी बदनाम नहीं होने देंगें;
बची हो जो एक बूंद भी गरम लहू की;
तब तक भारत माता का आँचल नीलाम नहीं होने देंगें!

स्वतंत्रता दिवस की सभी को बधाई!



 Sayri In Hinenglish ward

[1]

Ye baat hawao ko bataye rakhna,
Roshni hogi chirago ko jalaye rakhna,
Lahu dekar jiski hifazat humne ki
aise TIRANGE ko sada Dil me basaye rakhna.

Happy Indian Independence Day..


[2]

 Aaj shaheedon ne hai tumko  lalkara,

Todo ghulami ki zanjeerein, barsaao angara,
Hindu, Muslim, Sikh hamara bhai-bhai pyara,
Yeh hai azadi ka jhanda, ise salaam hamara.

[3]

Waqt aa gaya hai ab duniya ko saaf-saaf kehna hoga,
Desh prem ki prabal dhaar mein har man ko behna hoga,
Jise tiranga lage paraya, mera desh chhod jaaye,
Hindustan mein Hindustani bankar hi rehna hoga.

[4]

Kuch nasha Tirange ki aaan ka hain,

Kuch nasha Matrbhumi ki shaan ka hai
Hum lahrayenge har jagah ye Tiranga
Nasha ye Hindustan ki shaan ka hain..!!

[5]

Khushnasib Hote Hai Woh Log

Jo Is Desh Pe Kurban Hote Hain
Jaan Deke Bhi Woh Log
Amar Ho Jaate Hain
Kartey Hain Salam Un Desh Premiyo Ko
Jinke Karan Is Tirange Ka Maan Hota Hai…

[6]

Ye Nafrat Buri Hai Na Paalo Isay, Dilo Main Khalish Hai .Nikalo Isay

Na Tera 
Na Mera 
Na Iska 
Na Uska
Ye Sab Ka Watan Hai, Bacha Lo yise.



[7]

Nahi Sirf Jashn Manana, Nahi Sirf Jhande Lehrana , Yeh Kaafi Nahi Hai Watan Pharishto keYadon Ko Nahi Bhulana, Jo Qurbaan Hue, Unke Lafzon Ko Aage Badhana, Khuda Ke Liye Nahi Zindagi Watan K Liye Nibhana..





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